GS-1 (Society)
Topic: Women empowerment and social justice: Policies for women Empowerment in India, Laws for protection of women, women security and safety initiatives in India.
कभी दिल्ली मे निर्भया, तो कभी हिमाचल में गुड़िया और आज हैदराबाद में दिशा तो कल देश के किसी कोने में कोई और नाम होगा।आखिर कब तक यह सिलसिला जारी रहेगा और हम दिल पर पत्थर रख कर चुपचाप इसे सहते रहेंगे? हम महिलाओं के लिए सामाजिक और लैंगिक न्याय की बात करते हैं, उनके सशक्तिकरण की बात करते हैं, महिला दिवस मनाते है, उनकी सुरक्षा के लिए सशक्त कानून की बात करते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि आज भी एक पिता पुत्री को बोझ, पति उसे दासी और अन्य व्यक्ति उसे मादक द्रव्य के रूप में देखता है। जब तक इस मानसिकता में परिवर्तन नहीं आएगा तब तक महिला सुरक्षा कानून की किताबों में, भाषणों में और सरकार की नीतियों तक ही सीमित रहेगी।लेकिन सवाल यह है कि इस मानसिकता में परिवर्तन आएगा कैसे? यह विकृत मानसिकता किसी इंसान में आखिर जन्म कैसे लेती है? कुछ लोग कहेंगे कि फांसी दे दो बात खत्म।क्या फांसी देने से अपराध रुक जाएंगे?
निसंदेह जिसने इस तरह से मानवीय पराकाष्ठा की सभी सीमाएं लांग कर एक दानवीय कुकृत्य किया हो उसे फांसी तो होनी ही चाहिए। लेकिन बात सिर्फ एक अपराधी की नहीं बल्कि महिलाओं के खिलाफ होने वाले देश में सभी अपराधों की है। तो मेरा सवाल है क्या किसी एक अपराधी को फांसी देने से देश के अलग-अलग कोनों में हो रहे अपराध भी रुक जाएंगे?अगर फांसी दिए जाने के डर से किसी की मानसिकता में परिवर्तन लाना संभव होता तो सऊदी अरब जैसे देश जहां फांसी से भी भयानक सजाएं दी जाती है वहां कोई अपराध ही ना होता। दूसरी तरफ अमेरिका और कनाडा के वे प्रांत जहां अब भी फांसी की सजा दी जाती है उन प्रांतों में पिछले कुछ वर्षों में यह पाया गया है कि अपराधों में बढ़ोतरी हुई है। महिलाओं के खिलाफ अपराध प्राचीन राजाओं के काल में भी होते थे और ब्रिटिश काल में भी।उस दौरान फांसी की सजा तो बहुत ही सामान्य बात थी। यहां तक भारत में अंग्रेजी शासन के दौरान फांसी आम जनता के बीच भी दी जाती थी। इसका अर्थ यह है कि फांसी भी अपराधियों के इलाज की कारगर दवा नहीं है।
ऐसे में आज जब हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र होने की भूमिका निभा रहे हैं तो फांसी की सजा पर और भी ज्यादा सवाल खड़े हो जाते हैं। तो क्या फांसी के अलावा कोई अन्य उपाय भी है जिससे इन अपराधों को कम किया जा सकता है? जवाब है हां। लेकिन यह जानने से पहले हमें महिलाओं के साथ हो रहे अपराधों की स्थिति और वर्तमान में उनकी सुरक्षा के लिए कानूनी ढांचे को समझना होगा। हमे समझना होगा की सामाजिक तथा लैंगिक न्याय और महिला सशक्तिकरण जिसकी अक्सर हम बात करते हैं उसके क्या मायने हैं और सरकार द्वारा इस दिशा में अब तक क्या-क्या प्रयास किए गए हैं।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2017 में महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों में सबसे अधिक मामले 27% उनके खिलाफ होने वाली क्रूरता के हैं।इसके बाद क्रमशः छेड़छाड़, दहेज हत्या, आत्महत्या, अपहरण, हत्या और एसिड हमले आदि हैं। इसमें सबसे कम बलात्कार के 7% मामले हैं। वहीं बलात्कार के कुल दर्ज केसों में 93% प्रतिशत मामलों में अभियुक्त नजदीकी रिश्तेदार या परिचित हैं।
महिलाओं के खिलाफ क्रूरता और घरेलू हिंसा के अधिक मामले होना व बलात्कार केसो में नजदीकी रिश्तेदारों का शामिल होना यह बताता है कि अपराधी पीड़िता के आसपास रहने वाला ही है। ऐसे में आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल करके व पुलिस गश्त बढ़ाकर हम हो सकता है कि महिलाओं को बाहरी लोगो से बचाने में कामयाब भी हो जाए लेकिन अपराधियों का एक बड़ा हिस्सा जो घर के अंदर बैठा है उनसे कैसे निपटेंगे यह भी एक चिंता का विषय है। हालांकि क्रूरता और घरेलू हिंसा की समस्या से निपटने के लिए भारत में घरेलू हिंसा निवारण अधिनियम 2005, दहेज निषेध अधिनियम 1961 लागू है और आईपीसी की धारा 498(a)के अंतर्गत दहेज के लिए प्रताड़ित करने के विरुद्ध सजा का प्रावधान है।आईपीसी की धारा 376 में बलात्कार के लिए दंड का प्रावधान है। साथ ही लडकियों के लिए 18 वर्ष से कम आयु में शादी करना कानूनी रूप से निषेध है। लेकिन सर्वे बताते हैं आज भी 18% लड़कियां भारत में 18 साल की उम्र से पहले ही शादी कर लेती हैं और राजस्थान में तो ये आंकड़ा 40% है, वहीं दहेज लेने और देने की परंपराएं तो सबके सामने है ही।जबकि कानूनी रूप से दहेज लेना और देना दोनों जुर्म है। इसका यह अर्थ है कि कानून तो है लेकिन भारत में कानून का पालन अच्छे से नहीं होता।कानून का पालन कैसे अच्छे से हो इस पर सरकार को विचार करना चाहिए।
भारत में कानून की यही लचर स्थिति, पुलिस में स्टाफ की कमी और महिलाओं के प्रति उनकी असंवेदनशीलता तथा पारिवारिक दबाव और रिश्तो को टूटने का डर महिलाओं को उनके खिलाफ हो रहे अपराधों के खिलाफ बोलने से रोकता है। वहीं अगर कोई हिम्मत जुटाकर अपने अधिकार के लिए लड़ती भी है तो केसों के अत्यधिक दबाव तले दबी न्यायपालिका उन्हें न्याय दिलाने में वर्षों लगा लेती है।पिछले 7 सालो से निर्भया केस के बहुचर्चित अपराधी भी फांसी का इंतजार कर रहे हैं।एक सामान्य महिला के केस की सुनवाई और निष्पादन में कितना समय लगता होगा यह अंदाजा लगाया ही जा सकता है।ऐसे में एक महिला करें भी तो क्या करें? महिलाओं के खिलाफ अपराध ज्यादा ना बढ़े इसके लिए सामाजिक तथा लैंगिक न्याय और महिला सशक्तिकरण की परिकल्पना को धरातल पर उतारना बहुत आवश्यक है।
महिलाएं जो आबादी का आधा हिस्सा है उनके संदर्भ में सामाजिक और लैंगिक न्याय का अर्थ उन्हे समाज में शैक्षणिक, राजनीति, आर्थिक और सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में पुरुषों के बराबर स्वतंत्रता तथा समानता और विकास के सभी संसाधनों तक उनकी आवश्यक पहुंच स्थापित करना है।दूसरा उनके साथ लिंग के आधार पर किसी भी तरह का भेदभाव न हो यह आवश्यक है। हम एक बार अगर समाजिक व लैंगिक न्याय स्थापित कर लेते हैं तो सशक्तिकरण का रास्ता महिलाएं स्वयं तय कर लेंगीं। लेकिन लैंगिक न्याय और महिला सशक्तिकरण में सबसे बड़ी बाधा पितृसत्तात्मक सोच और पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता होना है।
महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराधों को रोकने के लिए भी हमें मानवीय सोच में ही परिवर्तन लाने की जरूरत है।मानवीय सोच में परिवर्तन लाने के लिए जैसा कलाम साहब कहा करते थे ‘एजुकेशन विद वैल्यू सिस्टम’ यानी नैतिक मूल्यों के साथ शिक्षा और ये नैतिक मूल्य अगर हमारे घर के आंगन मे बचपन से लेकर विश्वविद्यालय के परिसर में जवानी तक बने रहतें हैं तो अपराध की तस्वीर ही दिमाग से मिट जाएगी। क्योंकि अपराध न तो शहरों में बसता है और न ही गांव में, अगर कहीं है, तो वो आदमी के दिमाग में है। भारत का भविष्य आने वाली पीढ़ियों पर निर्भर करेगा और आने वाली पीढ़ियों का भविष्य हमारी शिक्षा पद्धति पर।अत: आज अगर भारत को कहीं सुधार करने की सबसे ज्यादा जरूरत है तो वो है भारत का एजुकेशन सिस्टम यानी शिक्षा पद्धति।
लेखक: लाभ सिंह
निरीक्षक सहकारी सभाएं, कुल्लू।
Email: [email protected]
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