GS-3 (Socio-economic development of HP)
Topic: Economy of Himachal Pradesh
GS-1 (Employment potential in HP)
Topic: Employment generation and potential.
हाल ही में राज्य स्तरीय सहकारिता सप्ताह समारोह का आयोजन उन्ना के हरोली में सहकारिता एवं सामाजिक न्याय मंत्री डॉ राजीव सैजल की अध्यक्षता में पूर्ण हुआ। हिमाचल में सहकारिता का भविष्य क्या हो इस पर भी मंत्री महोदय द्वारा प्रकाश डाला गया। सहकारिता यानी आपसी सहयोग या मिलकर कार्य को पूरा करने का सिद्धांत।लेकिन यह दुख की बात है कि इस सिद्धांत को सहकारी सभाओं में वास्तविक रूप से कभी अपनाया ही नही गया, यह सिर्फ सरकारी नियमों और अधिनियमों में ही बंधकर रह गया। अगर इस बात की सक्थी से सुध ली गई होती तो हिमाचल में हमारे सामने आज सहकारिता की एक अलग तस्वीर होती, जर्जर, खंडहर, बस्ते में बंद,
वजूद को टटोलती सहकारी सभाएं न होती।
हिमाचल जहां 90% जनसंख्या गांवों में रहती है जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से पशुपालन और कृषि से जुड़ी है, अधिकतर लोग बागवानी भी करते हैं और यंहा कई नगदी फसले भी उगाई जाती है, इसके अलावा हथकरघा, शिल्पकारिता, और ना जाने कितने ऐसे आधार हैं जो सहकारिता की विशालकाय इमारत खड़ा कर सकते थे, लेकिन सोचने की बात है कि इतनी आपार संभावनाओं के बावजूद भी सहकारी सभाएं हिमाचल में अपने अस्तित्व को तलाश रही है।आए दिन सहकारी सभाओं में घपलों की खबरें समाचार पत्रों में देखने को मिलती रहती है। क्या कारण है कि सहकारिता की छवि इतनी धूमिल होती जा रही है?
सहकारिता जिसकी शुरुआत साहूकारों के शोषण से बचने के लिए आपसी सहयोग को बढ़ावा देकर आपसी जरूरतों को पूरा करने के लिए की गई थी।आज उसी सहकारिता का इस्तेमाल कुछ लोग अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए एक शरण स्थली के रूप में कर रहे हैं। सभाएं शरण स्थली क्यों बनती जा रही है और कमियां कहां है? यह एक बड़ा सोचनीय विषय है। कमियां सहकारी सभाओं के शासन व कार्यक्षेत्र से जुड़े किसी एक स्तर पर भी हो सकती है और सभी स्तरों पर भी।कमियां चाहे प्रबंधन के स्तर पर हो, नियंत्रण के स्तर पर हो, अधिनियमन के स्तर पर हो, सदस्यों की जागरूकता के स्तर पर हो या सहकारी सभाओं के कर्मचारियों के निजी स्वार्थ के स्तर पर हो। इन सभी स्तरों पर व्यापक सुधार लाए बिना सहकारी सभाओं की वस्तुस्थिति को बदला नहीं जा सकता।
हालांकि 97वे संविधान संशोधन 2011 के अंतर्गत सहकारी सभाओं का गठन अनुच्छेद 19(1)(c) के अंतर्गत मौलिक अधिकार बनाया गया है।राज्य में सहकारी सभाओं के प्रबंधन और नियंत्रण के लिए सहकारिता अधिनियम 1968 और हिमाचल सहकारिता अधिनियम 2006 लागू है। इन अधिनियमों में अलग-अलग धाराओं के अलग-अलग प्रावधानों के अंतर्गत हिमाचल में सहकारी सभाओं का प्रबंधन, अधिनियमन और कार्यान्वयन सुनिश्चित किया गया है।लेकिन क्या कारण है कि सहकारिता जिसे एक आंदोलन की संज्ञा दी गई थी, उसका कुछ अपवादों को छोड़कर लोगों को अर्थ तक मालूम नहीं? क्या इसका यह मतलब है कि सहकारिता आंदोलन को हिमाचल में पूर्ण रुप से एक असफलता माना जाए? जवाब है, नहीं, राज्य में भुट्टिको जैसी प्राथमिक क्षेत्र की सफल सहकारी सभाएं भी है जो राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी ख्याति प्राप्त करने में सफल रही है। इसके अलावा उन्ना, हमीरपुर, बिलासपुर जिलों में साख सहकारी सभाएं स्थानीय लोगों की तरक्की और विकास में एक सकारात्मक भूमिका निभा रही है।आनी और निरमंड में दुग्ध सहकारी सभाओं का कार्य भी सराहनीय माना जा सकता है। क्या इन सहकारी सभाओं को सहकारिता के विकास का मॉडल मानकर दूसरी सहकारी सभाओं की दशा व दिशा में सुधार नहीं किया जा सकता?
इस पर भी आज गौर करने की जरूरत है। क्या पत्रकारों द्वारा सहकारिता के संबंध में कुछ सकारात्मक खबरें छाप कर लोगों में सहकारिता के प्रति भरोसा नहीं बढ़ाया जा सकता? आज जहां बैंकों में बढ़ते घोटालों के कारण लोगों का पैसा बैंकों में भी डूबता जा रहा है और लोगों का भरोसा बैंकिंग प्रणाली पर कम होता जा रहा है। क्या ऐसे में सहकारिता को एक बेहतर विकल्प के रूप में लोगों के बीच प्रस्तुत नहीं किया जा सकता? रोजगार कार्यालयों के आंकड़ों के अनुसार हिमाचल में करीब नौ लाख लोग बेरोजगार हैं, करीब तीन लाख लोगों ने पटवारी की परीक्षा के लिए आवेदन किया था और शिक्षित युवा जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा आज मनरेगा कार्य में संलग्न है। क्या ऐसे में शिक्षित युवा शक्ति को सहकारिता आंदोलन से जोड़कर सहकारिता की कार्य संस्कृति में सुधार नहीं लाया जा सकता? पशुपालन हिमाचल में एक मुख्य व्यवसाय है। ऐसे में क्या गुजरात के सहकारिता दुग्ध ब्रांड अमूल की तरह हम भी अपना कोई सहकारिता दुग्ध ब्रांड स्थापित नहीं कर सकते?
जवाब है हां। इसके लिए उचित संसाधन, सहकारिता से जुड़े अधिकारियों व कर्मचारियों को अच्छा प्रशिक्षण, मजबूत कानून, लोगों में जागरूकता के स्तर में वृद्धि लाना, आधुनिक तकनीकों का सहकारिता में समावेश, सहकारी सभाओं की कार्य संस्कृति में सुधार, शिक्षित व जागरूक व्यक्तियों को सहकारी सभाओं से जोड़ना एवं सरकारी सभाओं के सदस्यों के लिए भी प्रशिक्षण की व्यवस्था होना आदि आवश्यक है। सहकारी सभाओं की लोकतांत्रिक कार्यपद्धती बनी रहे इसके लिए अंकेक्षक व अन्य विभागीय कर्मचारियों का निष्पक्ष व निस्वार्थ होना भी अति आवश्यक है। सहकारी सभाओं के विकास व कार्यों में वृद्धि के लिए प्रबंधक समिति सदस्यों का निस्वार्थ व निष्पक्ष होने के साथ-साथ सहकारी सभाओं के कर्मचारियों का ईमानदार होना भी बहुत महत्वपूर्ण है।
विभागीय निर्देशों का उल्लंघन करने व नियमों के विपरीत कार्य करने बाली सहकारी सभाओं व विभागीय कर्मचारियों और अधिकारियों के लिए भी सख्त सजा का प्रावधान होना चाहिए। लेकिन कोई भी अधिकारी या कर्मचारी कार्य तभी बेहतर ढंग से कर पाएगा यदि उसे अच्छा प्रशिक्षण दिया गया हो। अत: सरकार को प्रशिक्षण के बेहतर विकल्प उपलब्ध कराने पर भी विचार करना चाहिए। सहकारी सभाओं को अधिक स्वायत्तता देने पर भी विचार किया जा सकता है जिसके लिए नियमों व अधिनियम में कुछ संशोधन करने की आवश्यकता होगी। लेकिन उनकी जवाबदेही को और अधिक सुनिश्चित किया जाना चाहिए साथ ही निष्क्रिय पड़ी सहकारी सभाओं को बन्द करने की प्रक्रिया को सरल किया जाना चाहिए। इससे एक तरफ जहां सहकारिता की कार्य पद्धति में पारदर्शिता आएगी वहीं लोगों का सहकारिता के प्रति भरोसा बढ़ेगा जो आगे चलकर सहकारिता आंदोलन को गति प्रदान करने के लिए एक सकारात्मक भूमिका निभा सकता है।
लेखक: लाभ सिंह
निरीक्षक सहकारी सभाएं, कुल्लू।
Email: [email protected]
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