Topics: GS1 (Geography/Biodiversity of HP)
GS3 ( Environmental Concerns in HP, Biodiversity in HP)
जैव विविधता का अर्थ पृथ्वी पर पाए जाने वाले जीवों की विविधता से है। अर्थात् किसी निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में पाए जाने वाले जीवों एवं वनस्पतियों की संख्या एवं प्रकारों को जैव विविधता माना जाता है।
1992 में रियो डि जेनेरियो में आयोजित पृथ्वी सम्मेलन में जैव विविधता की मानक परिभाषा के अनुसार- जैव विविधता समस्त स्रोतों यथा-अंतर क्षेत्रीय, स्थलीय, सागरीय एवं अन्य जलीय पारिस्थितिक तंत्रों के जीवों के मध्य अंतर और साथ ही उन सभी पारिस्थितिक समूह जिनके ये भाग हैं, में पाई जाने वाली विविधता है।
मनुष्य प्रकृति में उत्पन्न, विकसित तथा समृद्ध हुआ है। मानव समाज को विकसित होने व संवृद्धि के लिए प्राकृतिक संसाधनों की आवश्यकता होती है। यह धारणा कि प्रकृति ‘जानने के लिये अच्छी है’ तथा आर्थिक विकास को बढ़ाने, नौकरियों के सृजन, औद्योगिक प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ाने आदि महत्त्वपूर्ण कार्यों के लिये इसका संरक्षण द्वितीयक है, स्वाभाविक रूप से गलत है।हालाँकि यह धारणा धीरे-धीरे बदल रही है, वैश्विक स्तर पर सरकारें एवं कंपनियाँ प्रकृति के संरक्षण के संबंध में अब अधिक एकीकृत दृष्टिकोण अपनाने पर बल दे रही हैं।
जलवायु परिवर्तन, बढ़ते प्रदूषण स्तर, मानव द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से विभिन्न प्रजातियों के आवास नष्ट हो रहे हैं जिसके कारण बहुत सारी प्रजातियाँ या तो विलुप्त हो गईं या होने के कगार पर हैं। हाल ही में जारी यू.एन. रिपोर्ट के अनुसार, मानव गतिविधियों के कारण दस लाख प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि किस प्रकार मानव ने उन प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट किया है जिन पर हमारा अस्तित्व निर्भर करता है। कई वैज्ञानिकों को लगता है कि दुनिया जीवों के छठे प्रमुख सामूहिक विलुप्ति के बीच में है, जिसका कारण पूरी तरह से मानव है।
प्राकृतिक आपदाओं के कारण कभी-कभी जैव समुदाय के संपूर्ण आवास एवं प्रजाति का विनाश हो जाता है। बढ़ते तापमान के कारण समुद्री जैव-विविधता का विनाश हो जाता है। बढ़ते तापमान के कारण समुद्री जैव-विविधता खतरे में है। साथ ही हम पाते हैं कि विभिन्न माध्यमों से जब एक क्षेत्र में दूसरे क्षेत्र विशेष से विदेशी प्रजातियाँ प्रवेश करती हैं तो वे वहाँ की मूल जातियों को प्रभावित करती हैं, जिससे स्थानीय प्रजातियों में संकट उत्पन्न होने लगता है। साथ ही जानवरों का अवैध शिकार, कृषि क्षेत्रों का विस्तार, तटीय क्षेत्र का नष्ट होना और जलवायु परिवर्तन भी जैव-विविधता को प्रभावित करते हैं। भारत में जैव-विविधता ह्रास का एक प्रमुख कारण जल एवं वायु प्रदूषण है।
लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट, 2018 के अनुसार, मानव गतिविधियों ने 1970 तक पृथ्वी के 60% स्तनधारियों, पक्षियों, मछलियों और सरीसृपों को नष्ट कर दिया है। पिछले 30 वर्षों में उथले पानी के कोरल का लगभग आधा हिस्सा नष्ट हो गया है।
यूरोपीयन कमीशन जॉइंट रिसर्च सेंटर द्वारा तैयार वैश्विक मृदा जैव विविधता एटलस के अनुसार, भारत की मृदा जैव विविधता गंभीर खतरे में है। वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर का ‘जोखिम सूचकांक या रिस्क इंडेक्स’ – ज़मीन के ऊपर जैव विविधता में कमी, प्रदूषण, पोषक तत्त्वों की ओवरलोडिंग, ओवरग्रेज़िंग,गहन कृषि, आग, मृदा अपरदन, मरुस्थलीकरण और जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले खतरों को इंगित करता है। मृदा जैव विविधता में सूक्ष्म जीवों, सूक्ष्म प्राणीजात- सूत्रकृमी तथा सूक्ष्म-जीव (चीटियाँ, दीमक, और केंचुए) की उपस्थिति शामिल है।
तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय द्वारा किये गए एक अध्ययन के अनुसार, भारत में लगभग 50 मिलियन हेक्टेयर कृषि भूमि की परागण आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये 150 मिलियन मधुमक्खी कॉलोनियों की आवश्यकता थी जबकि केवल 1.2 मिलियन कॉलोनी मौज़ूद थीं।
पक्षी कचरे और खतरनाक अवशेषों को खत्म करने में मदद करते हैं तथा मनुष्यों और अन्य जीवों में बीमारी के प्रसार को कम करते हैं। वर्तमान में अनेक कानूनों के बावजूद लाखों विदेशी और जंगली पक्षियों एवं वन्यजीवों का अवैध व्यापार अथवा उनका शिकार तथा उन्हें बेचा जाता है।
उपरोक्त चुनौतियों का समाधान करने के लिये, तीन आवश्यक उपाय हैं:–जैव विविधता की पुनः प्राप्ति के लिये स्पष्ट रूप से एक लक्ष्य निर्दिष्ट करना। प्रगति के मापनीय और प्रासंगिक संकेतकों का एक सेट विकसित करना। उन कार्यों के एक समूह पर सहमति, जो सामूहिक रूप से आवश्यक समयसीमा में लक्ष्य प्राप्त कर सकें।
हिमाचल प्रदेश को प्रकृति ने अनुपम वनस्पति से नवाजा है और यहां अनेक प्रकार की जड़ी-बूटियों का भंडार मौजूद है, जो विभिन्न प्रकार की दवाइयां बनाने तथा अन्य उत्पादों के निर्माण के लिए प्रयुक्त होती हैं। सी.एस.आई.आर- हिमालय जैवसंपदा प्रौद्योगिकी संस्थान, पालमपुर संस्थान पश्चिमी हिमालय क्षेत्र सर्वेक्षण, संग्रहण, रूपात्मक लक्षणचित्रण और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण पौधों की प्रजातियों के डेटाबेस के निर्माण पर कार्य कर रहा है। संस्थान ने अब तक हिमाचल प्रदेश के 50% के क्षेत्र में यह कार्य कर लिया है। हिमफ्लोरिस(हिमाचल प्रदेश फ्लोरा इन्फार्मेशन सिस्टम, हिम वन संकेत, हिम पादप संकलन आदि संस्थान द्वारा विकसित महत्वपूर्ण डेटाबेस से कुछ हैं। विभिन्न प्रयोजनों के लिए स्थानीय लोगों द्वारा प्रयोग में लाए जाने वाले पौधों की पहचान करने के हिमाचल प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में नृवानस्पतिक सर्वेक्षण भी किए जाते है, संग्रहित जानकारी का दस्तावेजीकरण करके इसे पारंपरिक ज्ञान डिजिटल लाइब्रेरी परियोजना के अन्तर्गत सीएसआईआर को प्रस्तुत किया जाता है।
पहले हमारे बुजुर्ग पेड़-पौधे लगाना धर्म समझते थे और इनका सरंक्षण भी करते थे। उन्हें बहुत सी प्रजातियों के महत्व का भी पता था, लेकिन आज यह स्थिति बिलकुल बदल चुकी है। बहुत से क्षेत्रों में कुछ धार्मिक मान्यताओं के चलते भी पेड़-पौधों को नहीं काटा जाता है। हिमालयी क्षेत्रों में वनस्पति की बहुमूल्य संपदा है और इसके संरक्षण की आवश्यकता है। हम सब भावी पीढि़यों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए जैव वनस्पतियों का संरक्षण करें और अधिक से अधिक पेड़-पौधों की प्रजातियों को तैयार करें। बच्चों व युवाओं को जड़ी-बूटियों व हर्बल पौधों की पहचान व जानकारी प्रदान करें ताकि वे बहुमूल्य संपदा का महत्त्व समझ सके और भविष्य में इनका संरक्षण करने में आगे आएं। 1992 के बाद इसके संरक्षण की दिशा में वैश्विक स्तर पर कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं। जैव विविधता अधिनियम-2002 इसी का परिणाम है।
भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा सड़क नेटवर्क है, अत: यहाँ विकास की योजना इस तरह से बनाने की आवश्यकता है कि वन्यजीव और जैव-विविधता से समृद्ध क्षेत्रों के संरक्षण को प्राथमिकता मिले।
जैव विविधता में गिरावट न केवल एक पर्यावरणीय मुद्दा है, बल्कि यह आर्थिक, सुरक्षात्मक तथा नैतिक मुद्दा भी है। सबसे बड़ी चुनौती तथा अवसर का संबंध विकास के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव से है। लोगों को प्रकृति की रक्षा के लिये स्वच्छ प्रौद्योगिकियों में बदलाव करना होगा। अतः प्रकृति को बचाने के लिये एक वैश्विक डील के लिये सभी देशों को एक मंच पर आने की ज़रूरत है।
लेखक- प्रत्यूष शर्मा,
सहायक प्रबंधक, इंडियन ओवरसीज बैंक
ईमेल- [email protected]
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