हिमाचल को देवभूमि के नाम से जाना जाता है। यहां पर हर वर्ष राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लगने वाले मेलों ने यहां की प्राचीन देव धरोहर को सदियों से बनाए रखा है।जिला कुल्लू में मनाया जाने वाला प्रसिद्ध दशहरा उत्सव मंडी की शिवरात्रि, चंबा का मिंजर मेला और रामपुर की लवी अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कुछ ऐसे नाम है जो सदियों से हमारी पुरातन परंपराओं के हिस्से रहे हैं। जहां ये सभी मेले अपने आप में कुछ ऐतिहासिक घटनाओं से जुड़े हैं वही कई पीढ़ियों तक इनका सांस्कृतिक महत्व भी कम नहीं हुआ है।
माना जाता है कि कुल्लू में दशहरे की शुरुआत कुल्लू के शक्तिशाली राजा जगत सिंह द्वारा 17वी सदी में ब्राह्मण हत्या के पाप से बचने के लिए की गई थी जब कृष्ण दास के शिष्य दामोदर दास द्वारा अयोध्या से रघुनाथ जी की मूर्ति यंहा लाई गई थी और आज भी रघुनाथ जी की रथ यात्रा मेले का मुख्य आकर्षण है। मंडी में शिवरात्रि मेले की विधिवत शुरुआत मंडी के राजा सूरज सेन द्वारा 17वी सदी में की गई थी। माना जाता है मेले की शुरुआत राजा ने उचित उत्तराधिकारी के अभाव में राजपाट माधवराव को सौंपकर की था और आज भी मंडी का शिवरात्रि मेला माधोराय की जलेब के साथ अपने ऐतिहासिक महत्व को बनाए हुए है, वहीं तिब्बत के साथ व्यापार के रूप में शुरू हुआ लवी मेला आज भी घोड़ों के व्यापार के लिए प्रसिद्ध है और चंबा के मिंजर मेले में मिंजर बहाने की परंपरा 10 वीं सदी में साहिल बर्मन के समय से आज तक जारी है।
सात दिन तक चलने वाले इन मेलों का जहां ऐतिहासिक महत्व है वहीं इनके सांस्कृतिक महत्व को भी नकारा नहीं जा सकता। ये हजारों वर्षों से हमारी प्राचीन परंपराओं को जैसे संगीत, नृत्य व अन्य लोक मनोरंजन कलाओं को संजोए हुए हैं। प्राचीन वाद्य यंत्रों का स्वरूप समाज में बनाए रखा है एवं संगीत व मनोरंजन पद्धति को संजोए हुए हैं। दूसरी तरफ हिमाचल के लगभग प्रत्येक गांव एवं छोटे कस्बों में कई तरह के धार्मिक व व्यापारिक मेलों एवं उत्सवों का आयोजन किया जाता है।
मेले लोगों को उनके व्यस्त क्षणों में से राहत दिलाकर मनोरंजन के साधन उपलब्ध करवाते हैं और आपसी भाईचारे को बढ़ाते हैं। इन मेलों में लोक वाद्य यंत्रों के साथ-2 लोक-नृत्यों, लोकनाट्यों, प्राचीन एवं आधुनिक खेलों इत्यादि का आयोजन भी किया जाता है। इससे एक तरफ जंहा स्थानीय कलाकारों और युवा खिलाड़ियों को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहन मिलता है वही ये लोगों के भरपूर मनोरंजन में भी सहायक होते हैं।
वर्ष 2016 में कुल्लू दशहरे के दौरान करीब दस हजार महिलाओं द्वारा एक साथ नाटी में नाच कर कुलवी नाटी के माध्यम से ‘बेटी है अनमोल’ का संदेश देते हुए ‘गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड’ में हिमाचल की विरासत माने जाने वाली कुल्वी नाटी का नाम दर्ज कर इसे अमर कर दिया। वहीं शिक्षा के बढ़ते प्रसार के साथ भी राज्य में महिलाओं की स्थिति में अपेक्षित सुधार नहीं हो सका है एक तरफ जहां सबसे अधिक साक्षर जिलों हमीरपुर और उन्ना में राज्य भर में सबसे कम बाल लिंगानुपात है, वहीं लाहौल एवं स्पीति जैसे दुर्गम जिले में जनजातिय जनसंख्या के बावजूद भी देशभर में बाल लिंगानुपात में सर्वोच्च स्थान हासिल किया है। इसे एक बात स्पष्ट है कि बढ़ती शिक्षा के बावजूद भी हम लिंगभेद संबंधी मानवीय सोच में परिवर्तन नहीं ला सके हैं।
एक सर्वे के अनुसार 40% महिलाओं को केवल बाजार तक जाने के लिए भी अपने पतियों से अनुमति लेनी पड़ती है जिनमें मेलों को भी शामिल किया जा सकता है, हालांकि मेले आपसी मेलजोल का अवसर उपलब्ध करवाते हैं और समाज में कलह और द्वेष की भावना को कम करते हैं। लेकिन महिलाओं को भी इसमें भाग लेने की पूरी स्वतंत्रता हो, यह आवश्यक है।
इसके साथ ही मेलों में मादक द्रव्यों का अधिक सेवन, बलि प्रथा और जातीय भेदभाव जैसी कुछ पुरातन और रूढ़िवादी परंपराएं भी विद्यमान है। 21वी सदी विज्ञान और तकनीक की सदी मानी जाती है और इस तकनीकी दौर में इन परंपराओं का पालन अपने आप में एक चिंतनीय विषय है। किसी समय सती प्रथा भी हमारी संस्कृति का भाग था; बाल विवाह, स्त्रियों को शिक्षा से वंचित रखना भी हमारी परंपराओं में शामिल था। हम इन परंपराओं को अंधों की तरह सदियों से ढो रहे थे, जब तक कि अंग्रेजी सत्ता ने हमारी अंखे नहीं खोल दी थी। आज भी हमें बहुत कुछ इन विकसित देशों से सीखने की जरूरत है। कुछ आवश्यक बदलावों के साथ हमारी प्राचीन संस्कृति व प्राचीन लोक कलाएं आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचे इसके लिए जरूरी है कि मेले समाज में अपना वजूद कायम रखें और रूढ़िवादी परंपराओं का हम त्याग करें।
लेखक: लाभ सिंह
निरीक्षक सहकारी सभाएं, कुल्लू।
Email: [email protected]
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