डॉ. सत्या चौहान
स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए सम्पूर्ण भारत में संघर्ष चरम सीमा पर था। पहाड़ी क्षेत्रों में भी स्वाधीनता की ज्योति ‘प्रजामण्डल आंदोलन’ के माध्यम से जगी। प्रजामण्डल का सम्बन्ध किसानों से था जिन्होंने रियासती शासन के विरुद्ध अपने-अपने ढंग से संघर्ष किया। 1939 में लुधियाना में ‘ऑल इंडिया स्टेट पीपुल्स कांग्रेस’ का अधिवेशन हुआ जिसमें पहाड़ी राज्यों में प्रजामण्डल बनाने और इन क्षेत्रों पर विशेष ध्यान देने का निर्णय लिया गया। भारत के सभी जनपदों में आंदोलन चलाने के लिए कांग्रेस के सहयोगी संगठन, से भी राज्य परिषद के माध्यम से प्रजामण्डलों के कार्य तेज करने का आह्वान किया और पट्टाभि सीतारमैया को इस कार्य का जिम्मा सौंपा गया।
सीतारमैया की सूझ-बूझ तथा कार्यकुशलता तथा सहयोगी संगठन के माध्यम से हिमाचल प्रदेश की 36 रियासतों में आजादी के कार्यकर्ताओं का संगठन प्रजामण्डल के माध्यम से जोर पकड़ता गया। इसी कड़ी में 13 जुलाई, 1937 के धामी प्रेम प्रचारिणी सभा की बैठक में सभा का नाम बदल कर धामी प्रजामण्डल की नींव रखी गई। इस बैठक में मण्डल ने एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें पूर्ण जिम्मेदार सरकार, नागरिक स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति का अधिकार, माल में पचास प्रतिशत कटौती, बेगार प्रथा का उन्मूलन, जब्त की गई भूमि की वापसी तथा प्रजामण्डल को मान्यता आदि मांगें राजा के समक्ष रखने का निर्णय लिया गया। प्रजामण्डल ने ऐसी मांगों को लेकर प्रस्ताव लाया जो राजनीतिक दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण था। राज्य के अन्दर लम्बे समय भूमि से जुड़ी मांगों को लेकर तनाव बना हुआ था। पिछले तीन वर्षों से लगातार किसानों की फसलें खराब हो रही थी और राजा इन करों में छूट देने को तैयार नहीं था।
शिमला ब्रिटिश हुकूमत की राजधानी होने के कारण यहां बड़े-बड़े नेताओं का आना-जाना लगा रहा था। जिस कारण पहाड़ी लोगों में भी समूचे राष्ट्र के साथ आजादी प्राप्त करने की इच्छा प्रवत्त होती गई। परन्तु राज्य के शासन के ढांचे में लोगों की भागीदारी का कोई ऐसा साधन नहीं था जिसके माध्यम से आमजन अपने प्रतिनिधियों के द्वारा जनतांत्रिक तरीके से अपनी कठिनाइयों तथा अपेक्षाओं को राजा तक पहुंचाते। कुछ रियासतों में जनता द्वारा विरोध का एक माध्यम दूम्ह था। दूम्ह संगठित करने की मिसालें बुशहर और मण्डी रियासतों में मिलती है। दुम्ह जन- विचारों को सामूहिक रूप से अभिव्यक्त करने का अनूठा तरीका था। दूम्ह में शामिल होने वालों को कई प्रकार से दौड़त किया जाता था। यहां तक कि फसलें भी जलाई जाती थी।
बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में इन रियासतों में गैर-राजनीतिक संगठन बने जिनमें चम्बा सेवक संघ, धामी प्रेम प्रचारिणी सभा तथा बुशहर सेवा मण्डल प्रमुख थे। शुरुआती दौर में ये सब संगठन सामाजिक संस्थाएं थी परन्तु 1931 के आस-पास यह संस्थाएं सांस्कृतिक एवं सामाजिक गतिविधियों के अलावा राजनीतिक एवं जनतांत्रिक चेतना की प्रेरणा स्रोत बन गई और आगे चलकर यही संगठन प्रजामण्डल बने। इस तरह रियासतों में जनतांत्रिक चेतना को एक संगठनात्मक रूप मिला। राजनीतिक एवं जनतांत्रिक चेतना के इस प्रकार फैलने पर के. सौ. रेने ने ‘दि ट्रिब्यून’ में एक टिप्पणी की थी ‘जनवादी विचार विशालकाय बैरियर को पार करके शिमला की पहाड़ियों तक पहुंच चुके हैं, जिन्हें एक आंधी की तरह दबाने की भरपूर कोशिश की गई। इसकी चिंगारी धीरे-धीरे सारी पहाड़ी रियासतों में ज्वाला बन कर पहुंच गई। जनतांत्रिक चेतना का रूप वास्तव में सामंतवाद विरोधी था क्योंकि प्रजामण्डल की बुनियादी मांगों में भूमि के लगान तथा बेगार के खात्मे की मांग सर्वाधिक महत्वपूर्ण थी।
पहाड़ी जनता की अपने को संगठित करने की इच्छा बहुत प्रबल थी जो उनकी सामाजिक, आर्थिक एवं आम रहन-सहन की कठिनाइयों की प्रतिक्रिया थी। राज्य प्रशासन की बर्बरता, अधिकारियों के कठोर बर्ताव, लगानों एवं करों के बोझ से तंग आई जनता को एक संगठनात्मक ढांचे की प्रबल आवश्यकता थी जो प्रजामण्डल के रूप में उनके सामने आई। कर लगानों में कटौती तथा फसलों के खराब होने की स्थिति में इनकी माफी प्रजामण्डलों की मुख्य मांगों में रही। इसके अलावा भी राज्यों में अनगिनत कर लगाए गए थे। इनमें पासनियाँ चरागाहों, पनचक्को, राजा के परिवार के जीवन मरण पर कर आदि असंख्य करों की मार आम जनता झेल रही थी। बंगार तथा बैठ की समस्या को लेकर प्रजामण्डलों को लोकप्रियता मिली। जो इन संगठनों के आंदोलन का बिन्दु बन गई। 1940 के दशक में इन मांगों को लेकर बहुत से छुटपुट तथा ऐतिहासिक आंदोलन लड़े गए।
पहाड़ी रियासतों का राजनीतिक पिछड़ापन और इन रियासतों में लोकप्रिय आंदोलनों की कमी इस बात से स्पष्ट होती है कि 1929 के आल इण्डिया स्टेट पीपल्स कॉन्फ्रेंस (ए.आई.एस.पी. सौ.) के बम्बई अधिवेशन में यहां से किसी भी कार्यकर्ता ने भाग नहीं लिया हालांकि 1939 के लुधियाना अधिवेशन में श्री पद्मदेव व दूसरे कुछ साथियों ने जरूर हिस्सा लिया था। ए.आई.एस.पी. सौ. से सोधी मदद न मिलने के कारण भी प्रजामण्डल का विकास नहीं हो पाया। दिल्ली में कार्यरत हिमालयन स्टेट्स पील्स कांफ्रेंस के प्रयासों से ही प्रजामण्डलों का ए. आई.एस.वी.सी. से मान्यता कराई गई। शिमला और पंजाब हिल स्टेट्स में प्रजामण्डलों का विकास इस शताब्दी के तीसरे दशक के अंत में शुरू हुआ। सन् 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम से लेकर यहां विभिन्न क्रांतियां हुई जिनमें इस प्रदेश की छोटी-छोटी रियासतों में बंटे पहाड़ी लोग शामिल हुए लेकिन हिमाचल के इतिहास में सबसे चर्चित घटना धामी गोलीकांड रही। सन् 1948 के आरम्भ में पहाड़ी रियासतों में जारी स्वाधीनता संघर्ष चरम सीमा तक पहुंच गया था। प्रदेश में स्वतंत्रता संग्राम की इस लहर में प्रजामण्डल आंदोलनों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। शिमला इन मण्डलों के कार्यकलापों का केन्द्र बना प्रजामण्डल गतिविधियों ने पहाड़ी रियासतों के एकीकरण के कार्य में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
राज्य में कार्यरत विभिन्न प्रजामण्डलों के कामों का समन्वय करने के लिए हिमाचल हिल स्टेट्स रीजनल कौंसिल का गठन किया गया। इस रीजनल कौंसिल में पंडित पद्मदेव, शिवानंद रमोल, पूर्णानन्द, सत्यदेव बुशहरी, डॉ. यशवंत सिंह परमार, खुदो राम चन्देल, दौलतराम सांख्यान और मनसा राम जैसे लोग थे जिन्होंने स्वतंत्र पहाड़ी राज्य स्थापित करने का बीड़ा उठाया। छोटी-छोटी रियासतों में बने प्रजामण्डलों को इकट्ठा कर हिमालय रियासती प्रजामण्डल की स्थापना की गई। इसी दौरान कुनिहार, चम्बा, मण्डी, सुकेत, सिरमौर, बुशहर, बिलासपुर तथा अन्य छोटी-छोटी रियासतों में भी प्रजामण्डल संगठित किए गए। इन संगठनों को क्रियाशील बनाने में 1946 की ए. आई. एस.पी.सी. की उदयपुर कांफ्रेंस महत्त्वपूर्ण रही। उसके बाद मण्डी में एक बैठक हुई जिसमें हिमालय हिल स्टेट्स रोजनल कसिल की स्थापना की गई। यह बैठक महत्त्वपूर्ण साबित हुई, क्योंकि इससे प्रजामण्डलों के एकीकरण की प्रक्रिया पूरी हुई जो हिमाचल के गठन के लिए महत्वपूर्ण कदम साबित हुआ।
1940 के दशक प्रजामण्डल की मांगों में एक स्पष्ट सा बदलाव आया बंगार, लगान अथवा अन्य करों को समाप्त करने की मांग रखकर हर रियासत में जिम्मेवार सरकार को स्थापना पर जोर दिया गया। वैसे तो राज्य प्रशासन को लोकतांत्रिक बनाने क लिए तथा प्रजा के चुने हुए नुमाइन्दों को सरकार के लिए चम्बा प्रजामण्डल, हिमालयन रियासती प्रजामण्डल तथा अन्य संगठनों ने 1938 में भी की थी पर 1945-46 में यह मांग काफी जोर पकड़ गई थी। मण्डी में प्रशासन में जायदाद के आधार पर नामांकन किए जाते थे। पर प्रजामण्डल के हस्तक्षेप पर जनता की भागीदार को मांग मानी गई और एक मंत्रालय गठित किया गया।
सिरमौर में भी पझौता आन्दोलन के पश्चात राज्य परिषद बनाई गई थी। देश के आजाद होने के बावजूद अधिकांश रियासतों को जनता को लोकतांत्रिक अधिकार हासिल नहीं हो पाए। 1947 में यह मांग जोर शोर से उठाई गई। डॉ. यशवंत सिंह परमार व श्री पद्मदेव की हिमालयन हिल स्टेट्स सब रीजनल कॉसिल ने 1 अक्तूबर, 1947 को सिरमौर व सुकेत की रियासतों में जिम्मेदार सरकार गठित करने की मांग दोहराई। प्रजामण्डल के नेता पहाड़ी रियासतों को मिलाकर एक पहाड़ी प्रांत बनाने के हक में थे।
इसी के दृष्टिगत 4 जनवरी, 1948 को शिमला में एक कांफ्रेंस का आयोजन किया गया जिसमें पहाड़ी रियासतों के नेताओं ने हिस्सा लिया। इस कांफ्रेंस में ‘हिमालयन प्रांत’ बनाने के पक्ष में प्रस्ताव पारित हुआ। इसके उपरान्त 13 जनवरी, 1948 में दूसरी कॉफ्रेंस कोटगढ़ व तीसरी रामपुर में हुई जिसमें हिमालयन प्रांत के गठन पर जोर दिया गया।
25 जनवरी, 1948 को शिमला के गंज मैदान में एक विशाल जनसभा हुई। इसमें प्रजामंडल के कई नेताओं ने भाग लिया। डॉ. परमार ने इस जनसभा की अध्यक्षता की और उन्होंने पहाड़ी रियासतों के भारत संघ में विलय पर जोर दिया। साथ में ‘हिमालय प्रांत’ का प्रस्ताव भी पारित हुआ। पं. पद्मदेव व अन्य प्रजा मंडलियों ने डॉ. परमार के प्रस्तावों का समर्थन किया। परन्तु पहाड़ी रियासतों के भीतर और बाहर आंदोलनकारी नेताओं में रियासतों के भविष्य के बारे में काफी मतभेद बना रहा।
पंजाब के नेता सब पहाड़ी रियासतों को पंजाब में मिलाकर ‘महापंजाब प्रांत बनाने के हक में थे। उधर उत्तर प्रदेश के नेतागण टिहरी गढ़वाल सिरमौर के साथ शिमला की पहाड़ी रियासतों को उत्तर प्रदेश में मिलाने के हक में थे जबकि महाराजा के समर्थक नालागढ़, क्योंथल, सिरमौर, चम्बा व शिमला हिल्स की रियासतों को मिलाकर कोहीस्तान बनाना चाहते थे। दूसरी ओर केन्द्रीय सरकार भी छोटे प्रांत बनाने के हक में नहीं थी। इधर पहाड़ी रियासतों के नेता भी दो धड़ों में बंट चुके थे, जिस वजह हिमालयन हिल स्टेट्स रीजनल कौसिल कमजोर पड़ गई। ये दोनों भई मिनिस्ट्री ऑफ स्टेट्स के अधिकारियों से अलग-अलग मिलते रहे।
अखिल भारतीय लोक राज्य परिषद् की प्रथम मार्च, 1948 को पटियाला में हुई कांफ्रेंस में डॉ. परमार और दौलतराम सांख्य परिषद के अध्यक्ष पट्टयभि सीतारमैया से मिले। इसके पश्चात दिल्ली में मिनिस्ट्री ऑफ स्टेट्स’ के अधिकारियों से मिले।
अधिकारियों ने दिल्ली में ही शिमला व पंजाब हिल स्टेट्स के शासकों की बैठक बुलाई। इस बैठक में मिनिस्ट्री ने पहादी रियासतों के शासकों से बिना शर्त ‘विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने की अपील की परतुर रियासत के राजा दुर्गा सिंह ने सोलन सभा के प्रस्ताव के अनुसार पहाड़ी रियासतों के एक अलग प्रति ‘हिमाचल प्रदेश’ में सामूहिक विलय का आग्रह किया। परन्तु मिनिस्ट्री के सचिव सी. सी. देसाई ने इसका विरोध किया।
इस पर पहाड़ी शासकों ने बैठक छोड़ दी और भागमल- बुशहरी धड़े के नेता सरदार पटेल से मिले। उन्होंने पटेल के सामने सोलन सभा का प्रस्ताव पेश किया और काफी विचार-विमर्श के पश्चात यह निर्णय लिया कि पहाड़ी रियासतों का क्षेत्र ‘हिमाचल प्रदेश के नाम से केन्द्र के अधीन होगा। उसके पश्चात् 8 मार्च, 1948 को केन्द्रीय सरकार की ओर से 27 पहाड़ी रियासतों के विलय से हिमाचल प्रदेश के गठन की प्रक्रिया शुरू हुई। अंतत: 15 अप्रैल, 1948 को पहाड़ी क्षेत्र को 30 छोटी-बड़ी रियासतों को मिलाकर एक पहाड़ी प्रांत हिमाचल प्रदेश की विधिवत स्थापना की गई और इसे केन्द्र शासित ‘चीफ कमिश्नर प्रोविंस’ का दर्जा दिया। परन्तु लोकप्रिय सरकार न होने से पहाड़ी नेताओं और प्रजा का ‘स्वराज’ का सपना पूरा नहीं हुआ। सारे प्रदेश में चीफ कमीश्नर विरोधी जुलूस हुए। इस दौरान डॉ. परमार शीर्ष कांग्रेसी नेता बनकर उभरे। उनके नेतृत्व में प्रदेश कांग्रेस ने लोकप्रिय सरकार के लिए केन्द्र सरकार से संवैधानिक संघर्ष किया।
अंततः केंद्र सरकार ने हिमाचल को ‘पार्ट सी स्टेट’ का दर्जा देकर विधान मंडल की व्यवस्था की। डॉ. परमार 1952 से 1956 तक मुख्यमंत्री रहे परन्तु उन्होंने विशाल हिमाचल के लिए संघर्ष जारी रखा। हिमाचल के अस्तित्व पर अभी भी खतरा बना हुआ था, क्योंकि ‘राज्य पुनर्गठन आयोग’ ने हिमाचल को पंजाब में विलय करने की सिफारिश की थी। कई महीनों के वाद-विवाद के बाद केन्द्र ने हिमाचल को अलग भौगोलिक इकाई रखने का आश्वासन दिया। इस आश्वासन को पूरा करने के लिए हिमाचल प्रदेश को लोकप्रिय सरकार का बलिदान देना पड़ा और हिमाचल का पार्ट-सी-स्टेट का दर्जा घटाकर ‘यूनियन टेरीटरी’ कर दिया गया। एक नवम्बर, 1956 को उप- राज्यपाल ने हिमाचल प्रदेश का शासन संभाल लिया। हिमाचल के नेताओं और स्थानीय जनता को प्रदेश के भौगोलिक अस्तित्व के बचाव और विस्तार व लोकप्रिय सरकार की बहाली के लिए पुन: संघर्ष करना पड़ा। इस संघर्ष में सभी दल इकट्ठे हो गए और एक सर्वदलीय समिति का गठन किया गया जिसका नाम ‘विशाल हिमाचल समिति’ रखा। गया । दिसम्बर, 1959 में हिमाचल प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने डॉ. परमार के नेतृत्व में एक शिष्टमण्डल दिल्ली भेजा।
डॉ. परमार ने प्रभावशाली ढंग से हिमाचल में लोकतांत्रिक सरकार की मांग की। इन प्रयासों से विशाल हिमाचल तो नहीं बन पाया, परन्तु 1961 के अंत तक हिमाचल को विधान सभा मिलने की उम्मीद बढ़ने लगी। 1962 के आम चुनाव में कांग्रेस विजयी रही और काफी संघर्षों के उपरान्त जुलाई, 1963 को हिमाचल को लोकप्रिय सरकार की प्राप्ति हुई और टेरीटोरियल काउंसिल को विधान सभा में बदल दिया गया। उसके उपरान्त पंजाब के पहाड़ी क्षेत्रों के नेताओं ने मिलकर विशाल हिमाचल का प्रचार प्रारम्भ किया और अंतत: विशाल हिमाचल का सपना नवम्बर, 1966 को तब साकार हुआ जब केन्द्रीय सरकार ने कांगड़ा, कुल्लू, लाहौल-स्पीति, शिमला, ऊना, नालागढ़, डलहौजी, बकलोह आदि पहाड़ी रियासतों को हिमाचल प्रदेश में मिला दिया। फरवरी, 1967 में हिमाचल प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त करने का वाायदा किया और 24 जनवरी, 1968 को प्रदेश विधान सभा में सर्वसम्मति से पूर्ण राज्य प्रदान करने का प्रस्ताव पारित किया गया। परिणामस्वरूप 31 जुलाई, 1970 को प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने संसद में हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की घोषणा की और दिसम्बर, 1970 में संसद में स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश एक्ट पास हुआ।
प्रदेशवासियों का पूर्ण राज्यत्व का सपना तब साकार हुआ जब 25 जनवरी, 1971 को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने स्वयं शिमला आकर यहां के ऐतिहासिक रिज मैदान पर भारी बर्फबारी के बीच हजारों की संख्या में उपस्थित हिमाचलवासियों के समक्ष हिमाचल प्रदेश को भारत के अठारहवें पूर्ण राज्य के रूप में उद्घाटन किया।
आज हम डॉ. परमार सहित सभी नेताओं के कड़े संघर्षों व प्रयत्नों को भुला नहीं सकते, जिनकी बदौलत हिमाचल आज विकास पथ पर निरंतर अग्रसर हो रहा है। हिमाचल प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त करने के लिए एक लंबा लेकिन अहिंसक संघर्ष चला जबकि देश के अन्य हिस्सों में ऐसी किसी भी मांग तथा उसकी पूर्ति के साथ व्यापक हिसा जुड़ी रहती है। यह निःसंदेह एक स्वर्णिम संघर्ष था।
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