जातीय भेदभाव एक सामाजिक बीमारी

By | December 23, 2019

GS-1 (Governance and its related issues in HP)

Topic: Various policies framed by the Government of Himachal Pradesh for the socio-economic development of Scheduled Castes and Scheduled Tribes of the State.

हाल ही में जातीय भेदभाव के चलते सिराज विधानसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने बाले उप क्षेत्र बाली चौकी के नौणी प्राइमरी स्कूल में एक मुख्य अध्यापिका को सस्पेंड किया जाना शिक्षकों की कार्य पद्धति, हमारी शैक्षणिक स्थिति हमारी कानून और न्याय व्यवस्था और यंहा तक ही हमारे समाज में मानवीय गरिमा, बाल अधिकारों की स्थिति और हमारे संवैधानिक आदर्शों पर कई सवाल खड़े करता है। एक तरफ जहां हमें आजाद हुए 70 वर्षों से भी अधिक का समय हो चुका है, वहीं दूसरी तरफ समाजिक तौर पर जातिय भेदभाव की वेडियां आज भी समाज के एक कमजोर तबके को जंजीरों में जकड़े हुए हैं। मामला तब और भी गंभीर हो जाता है जब राष्ट्र का निर्माता कहलाने वाला अध्यापक इस तरह के भेदभाव में खुद संलिप्त हो।

यहां बात सिर्फ एक अध्यापक की नहीं है बल्कि उस पूरी सामाजिक व्यवस्था की है जहां जातीय भेदभाव को सही ठहराया जाता हो। चाहे फिर बात थाटी बीड़ में कारकुनो को लेकर हुए भेदभाव की हो, गोहर के किलिंग में बच्चों के साथ टूर्नामेंट के दौरान हुए भेदभाव की हो, या हो सरकाघाट के समाहल गांव में मंदिर प्रवेश की, या फिर लग वैली में श्मशान घाट में मुर्दा जलाने संबंधी विवाद की। ये कुछ ऐसे प्रकरण है जो समाचारों में आए और दोषियों पर मुकदमे चलाए गए और उन्हें जेल भेजा गया।लेकिन इसके अलावा भी प्रदेश मे ना जाने और भी कितने ऐसे स्कूल होंगे जहां इस तरह की घटनाएं हो रही होंगी।

आज समाज का एक बड़ा हिस्सा जातीय भेदभाव की इस मानसिक उत्कंठा से पीड़ित है जिनमे शिक्षा का अभाव, आर्थिक पिछड़ापन, आय के सीमित साधन, एक छोटा सा जमीन का टुकड़ा जो अपने यहां कोई ढाबा या चाय का स्टाल नहीं चला सकते, पुजारी बनकर मंत्र जाप नहीं कर सकते वो कहीं कोने में गुम से रहकर भेदभाव झेलने को मजबूर है और उनकी पीड़ा समझने ना कोई मीडिया पहुंच पाता है, ना कोई अखबार, ना कानून के रक्षक, और ना ही राजनेता। सदियों से चला आ रहा जातीय भेदभाव का समाज में होना स्वाभाविक माना जा सकता है लेकिन राज्य द्वारा वित पोषित शैक्षणिक संस्थानों में जो अप्रत्यक्ष रूप से संविधान का भी एक हिस्सा है, वहां इस तरह के प्रकरण होना हमारी प्रशासनिक असफलता नहीं तो और क्या है? लेकिन स्थिति तब और भी भयावह हो जाती है जब मासूमों के कालेजों पर भेदभाव की छूरी चलाई जा रही हो और हमें मूकदर्शक बनकर देखने को कहा जाए।आखिर हम किस व्यवस्था में जी रहे हैं जहां एक बच्चे को भी बख्शा नहीं जाता।

हालांकि समाज में सभी धर्मों, संप्रदायों और जातियों के मध्य समानता स्थापित करने के लिए मौलिक अधिकारों को संविधान में जगह दी गई है। लेकिन स्कूलों में मासूमों के साथ हो रहा भेदभाव जहां कानून के समक्ष समानता के अधिकार अनुच्छेद 14, जातीय आधर पर भेदभाव के खिलाफ अधिकार अनुच्छेद 15, अस्पृश्यता उन्मूलन का अधिकार अनुच्छेद 17 और गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है, वंही यह अनुसूचित जाति व जनजाति हिंसा निवारण अधिनियम 1989 के भी प्रावधानों का उल्लंघन करता है। यंहा तक कि यह तो मानव अधिकारों की मूल अवधारणा के भी बिल्कुल विरुध है।

इन अधिकारों के उल्लंघन पर जहां व्यक्ति अनुच्छेद 226 के अंतर्गत सीधा उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर सकता है, वहीं अनुसूचित जाति व जनजाति हिंसा निवारण अधिनियम 1989 के प्रावधानों के अंतर्गत अपराध को गैर जमानती व जघन्य माना गया है जिसमें एफ•आई•आर• दर्ज किए जाने के तुरंत बाद अपराधी को सीधा जेल भेजे जाने का प्रावधान है। वहीं दूसरी तरफ अनुच्छेद 39a के अंतर्गत आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्तियों के लिए निशुल्क कानूनी सहायता का भी प्रावधान है।

क्या कारण है कि इतने सुरक्षात्मक प्रावधानों के बावजूद भी जातीय भेदभाव की जड़े समाज में और ज्यादा गहरी होती जा रही है और हम इसे कम करने में नाकामयाब रहे हैं? इस पर मुझे बीआर अंबेडकर की एक बात याद आ रही है, जब संविधान बन रहा था तो उन्होंने कहा था कि कोई भी कानून तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक कि समाज में इसके प्रति स्वीकार्यता ना हो शायद यही कारण है कि हमें आजाद हुए 75 वर्ष पूरे होने को है लेकिन जातीय भेदभाव की स्थिति समाज में जस की तस बनी हुई है। लेकिन इसका मतलब यह भी तो नहीं है कि हम पूरी तरह इसे समाज पर छोड़ दें कानून का पालन अच्छे से हो यह राज्य की भी तो जिम्मेदारी बनती है।अनुच्छेद 39f और 46 के अंतर्गत यह सरकार की जिम्मेवारी होगी कि वह शोषित वर्ग के बच्चों व इससे संबंधित व्यक्तियों के उत्थान के लिए व इनकी शोषण से मुक्ति के लिए विशेष उपाय करें।जातीय भेदभाव के सभी उदाहरणों से भी यह बात स्पष्ट है कि संवैधानिक तौर पर अधिकार तो जरूर दिए गए हैं लेकिन सामाजिक रूप से इनकी स्वीकार्यता ना होने से और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी से समाज का सदियों से शोषित रहा एक तबका आज भी स्वतंत्रता और समानता की प्राप्ति के लिए लोगों के बीच भेदभाव की घृणित भावना के मध्य जीने को मजबूर है।

अपने इंग्लैंड प्रवास के दौरान जब बीआर अंबेडकर लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से अर्थशास्त्र की पढ़ाई कर रहे थे तब उनसे लाला लाजपत राय ने एक सवाल किया था कि आप पढ़ाई छोड़ कर क्यों नहीं हमारे साथ अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता संघर्ष में शामिल हो जाते, तो इस पर बीआर अंबेडकर ने जवाब दिया था कि हम तो अपने ही लोगों के गुलाम हैं पहले अपने लोगों से तो मुक्ति पा लें फिर बाहरी लोगों से भी निपट लेंगे। जातीय भेदभाव के संदर्भ में कही यह बात आज भी उतनी ही सार्थक है जितनी उस समय थी।जब तक हमारे अपने लोग ही शोषित वर्ग के लोगों को समाज में बराबर का दर्जा नहीं देंगे तब तक जातीय भेदभाव का उन्मूलन संभव नहीं है।

लेखक: लाभ सिंह
Email: [email protected]

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